Sonbhadra News : आधुनिकता की भेंट चढ़ा सावन, अब तो नहीं पड़ते झूले, कजरी भी भूले
'बदरा छाए के झूले पड़ गए हाय कि मेले सज गए मच गई धूम रे, ओ आया सावन झूम के.......... इस गीत को लिखते समय गीतकार ने सावन में झूले, तन-मन के रोमांच से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक को शामिल कर लिया था.....

सावन में झूले का आनन्द लेती महिलाएं....
sonbhadra
8:02 PM, July 13, 2025
आनन्द कुमार चौबे (संवाददाता)
सोनभद्र । 'बदरा छाए के झूले पड़ गए हाय कि मेले सज गए मच गई धूम रे, ओ आया सावन झूम के.......... इस गीत को लिखते समय गीतकार ने सावन में झूले, तन-मन के रोमांच से लेकर प्रकृति की सुंदरता तक को शामिल कर लिया था। उसने यह नहीं सोचा होगा कि जिस रोमांच की वह कल्पना कर रहा है, वह समय के संग विलुप्त हो जाएगा। सावन मास की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन अब पेड़ों पर ना तो सावन के झूले पड़ते हैं और ना ही बाग-बगीचों में सखियों की रौनक होती है, जबकि एक जमाने में सावन लगते ही बाग-बगीचों में झूलों का आनंद लिया जाता था। विवाहित बेटियाें को ससुराल से बुलाया जाता था। वे मेहंदी लगाकर सावन के इस मौसम में सखियों के संग झूला झूलने का आनंद लिया करती थी और वहीं, बरसती बूंदें मौसम का मजा और दोगुना कर देती थी, लेकिन अब ये परंपरा खत्म होती जा रही है। अब न तो झूले पड़ते हैं और न ही गीत सुनाई देते हैं।
विकास की दौड़ में लुप्त हो रहीं परंपराएं -
सावन जहां भगवान भोलेनाथ की उपासना के लिए उत्तम माना जाता है। ढाई दशक पहले सावन से जुड़ी तमाम परम्पराएं ग्रामीण इलाकों में प्रचलित थीं, लेकिन आधुनिकता के दौर में अब यह परम्पराएं खत्म होती जा रही हैं। हर साल सावन आता है, घनघोर घटाएं छाती हैं, लेकिन अब पेड़ों पर झूले नजर नहीं आते और ना ही कजरी की मीठी तान सुनाई पड़ती है। अब सब आधुनिक हो गया है, महानगर हो या ग्रामीण इलाके, न तो पहले की तरह बाग रहे न ही झूला पसंद करने वालीं युवतियां और महिलाएं। अब तो हालत ये है कि नवविवाहित महिलाएं भी सावन में अपने पीहर नहीं आतीं इसलिए न तो विरह के गीत सुनाई पड़ते हैं, न ही झूलों को सावन के आने का इंतजार रहता है। अब लोगों को मोबाइल और लैपटॉप से ही फुरसत नहीं है. सावन में जब पानी बरसता है तो विरह की आग और प्रज्जवलित हो जाती है। इसका कई कवियों ने अच्छा चित्रण किया है, लेकिन मौजूदा समय में सिर्फ औपचारिकता भर रह गई है, परंपरा खोती दिखाई दे रही है। अब तो सिर्फ बच्चे ही किसी 1-2 गांव में झूला झूलते दिखाई देते हैं।
बहन-बेटियाें के लिए पड़ते थे पेड़ों पर झूले -
मेहुड़ी गाँव निवासी 80 वर्षीय प्रमिला देवी बताती हैं कि "सावन में झूलों पर मस्ती करने वाली टोलियाँ नहीं दिखाई देती हैं। समय के साथ-साथ परंपरा में भी बदलाव आ रहा है. परंपरा को सहेजने के लिए झूलनोत्सव आदि भी नहीं आयोजित किया जाता। विकास की दौड़ में परंपराएं छूटती दिखाई दे रही हैं।"
मेहुड़ी गाँव निवासी 60 वर्षीय मंजू देवी बताती हैं कि "पहले सावन का महीना आते ही पेड़ों पर झूले पड़ जाते थे। पहला सावन मायके में ही मनाने की परंपरा रही है। ऐसे में बहन-बेटियां ससुराल से मायके बुला ली जाती थीं और हाथों में मेहंदी रचा कर पेड़ों पर झूला डाल कर झूलती थीं। महिलाएं कजरी गीत गाया करती थीं। अब जगह के अभाव में शहरों में तो कहीं झूले नहीं डाले जाते। घरों में जरूर कहीं-कहीं झूले मिलते हैं, लेकिन पेड़ों पर झूला डालकर झूलने का मजा ही अलग होता था।"