Sonbhadra News : मोबाइल युग में फाग के राग से वीरान हो रहे गांव
जहाँ एक तरफ आम के पेडों पर बौर का सुगंध, पछुआ हवा की सनसनाहट, बसंत की अंगड़ाई व पुष्प मंजरी फागुन आने की स्पष्ट संकेत दे रही है, तो वहीं दूसरी तरफ फागुन में ढोलक के थाप पर गुंजने वाली पारंपरिक लोकगीत.

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आनन्द कुमार चौबे (संवाददाता)
सोनभद्र । जहाँ एक तरफ आम के पेडों पर बौर का सुगंध, पछुआ हवा की सनसनाहट, बसंत की अंगड़ाई व पुष्प मंजरी फागुन आने की स्पष्ट संकेत दे रही है, तो वहीं दूसरी तरफ फागुन में ढोलक के थाप पर गुंजने वाली पारंपरिक लोकगीत फाग गायन आधुनिकता के दौर में सिकुड़ती जा रही है। दो दशक पूर्व वसंत पंचमी के दिन से ही गांव के चौपाल पर फाग गायन की मिठास गुंजायमान होने लगती थी, लोग फगुआ पर्व को प्रेम भाईचारा का प्रतीक मान कर एक दूसरे को रंग गुलाल से सराबोर कर देते थे लेकिन बदलते परिवेश में पर्व-त्योहार मनाने के तौर तरीके भी बदल गये हैं। वर्तमान समय में पारंपरिक होली गायन के ऊपर अश्लील और द्विअर्थी गीत हावी होती जा रही है।
फागुन आते ही कभी ढोलक की थाप व मंजीरों पर चारों तरफ पौराणिक फाग गीत गुंजायमान होने लगते थे, लेकिन आधुनिकता के दौर में ग्रामीण परिवेश की यह परंपरा लुप्त सी होती जा रही है। दो-ढाई दशक पहले फागुन महीने में गांवों में समूह बनाकर लोग फाग गाते थे लेकिन अब फाग गाने वालों की टोलियां कहीं दिखाई नहीं देती। धीरे-धीरे गांवों व कस्बों में सामूहिक रूप से होली गायन की परंपरा पहले की अपेक्षा सिमटती जा रही है। जोगी जी धीरे -धीरे, मोहन खेले होली हो, होली खेले रघुवीरा अवध में, होली के दिल सब मिल जाते है। आदि गीत अब सुनने को नहीं मिलते। डिजीटल युग में युवा पीढ़ी पारंपरिक लोकगीत से दूर होती जा रही है, हालांकि बुजुर्ग आज भी पारंपरिक गीतों को जीवित रखे हुए है।
अश्लील होली गीतों के आगे अब होली की उमंग भी गायब होने लगी है। लोगों का कहना है कि कालांतर में पारंपरिक रीति-रिवाज इतिहास के पन्नों में सिमट जायेगी। भारतीय संस्कृति से सराबोर होकर लोग फगुआ में सारे द्वेष कटुता को भूल अपने आप को एक टोली में समाहित कर आपसी भाईचारा का संदेश देते थे. समूह में गाये जाने वाला फाग गीत गांव की मिट्टी की खुशबू प्रदान करती थी। एक महीना पहले से हीं होली के आने की खुशी से लोग झूमने लगते थे। इन गीतों में भारत की सांस्कृतिक, धार्मिक तथा पारंपरिक रीति-रिवाजों की झलक देखने को मिलता था। फाग का राग हमारी लोक संस्कृति की पहचान हुआ करती है लेकिन समय के साथ साथ सब कुछ बदलने लगा व रिश्ते औपचारिक होते गए।
होली पर्व की रस्म अदायगी के तौर पर फाग गीत कहीं कहीं सुनने को मिल रहे हैं, अब पुराने होली गीत की जगह अश्लील भोजपुरी गीत ले चूकी है। गांवों में लगने वाले चौपाल के साथ-साथ बूढ़े-बुजुर्गों का जमघट गांवों से गायब होते जा रहा है, वहीं डीजिटल युग में अब फागुनी मिठास गायब हो चुकी है। गांवों की मिट्टी की पहचान भारतीय संस्कृति पर आधारित फाग गीतों की धुन अब सुनाई नहीं देती। हमारी लोक परंपरा को समाहित किए हुए ये फाग गीत आधुनिकता के दौर में धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है।
सेवानिवृत शिक्षक नगाँव निवासी ओंकार नाथ द्विवेदी बताते हैं कि "दो दशक पूर्व गांवों में कई स्थानों पर फाग गाने वालों की महफिल सजने लगती थी लेकिन वक्त के साथ-साथ महफिलों की संख्या कम होने लगी, वहीं वर्तमान में कुछेक गांवों में ही फाग गाए जा रहे हैं। आधुनिकता की चकाचौंध और बाजारवादी संस्कृति की वजह से फाग गायकी की परंपरा अब सिमट कर रह गई है। अब तो भोजपुरी की अश्लीलता होली फाग गीतों पर हावी हो चुकी है। युवा पीढी समाज के धरोहर है, उन्हें अपने संस्कृति को बचाने के लिए आगे आना चाहिए।"
सोहदवल गांव निवासी सेवानिवृत्त शिक्षक श्यामबिहारी उपाध्याय का कहना है कि "पहले के होली गीतों में सुर , लय , ताल , साहित्य , विनम्रता और संदेश हुआ करते थे , मगर अफसोस अब ऐसा नहीं है, अब अश्लीलता ज्यादा हो गई है।"

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